नींद

on Tuesday, December 30, 2008

दिसम्बर का महिना खत्म हो चला है पर सर्दियाँ अब शुरू हुई है हम जब सुबह अपने नर्म और गर्म बिस्तर से उठते है तो क्या हममें से कोई यह बात सोचता है की बीती रात कितने लोगों ने सड़क, पार्क या फ़िर किसी फुटपाथ पर काटी होगी। मैं और आप इस ठण्ड में रजाई से निकले के बारे में भी नही सोच सकते लेकिन कुछ लोग पूरी रात बिना चद्दर के ही काट लेते है ये बहादुरी नही मजबूरी है । रोज़गार की तलाश में रोज़ बहुत से लोग दिल्ली आते है लेकिन दिल्ली में क्या अब लोगों का पेट भरने और उनके सर पर छत देने की शक्ति रह गई है ...?






7 comments:

makrand said...

bahut khub
keep on clicking

विजय तिवारी " किसलय " said...

साहित्यकार समाज का दर्पण होता है, किंतु
आप जैसे छायाकार सिद्ध कर रहे हैं कि
छायाकर भी समाज का दर्पण होते हैं.
काश प्रशासनिक नीतियाँ एवं, समाजिक सरोकारों से
जुड़ी संस्थायें भी इस और ध्यान दे पातीं.
- विजय

Anonymous said...

तस्वीरें आपकी संवेदना बयान करती है

बधाई और नव वर्ष की शुभकामना

Unknown said...

bahut sahi..keep posting

Nalin Mehra said...

jab sota hai saara jahan garm garm bistar main,
raat ki thand main thithurthi ek zindagi hai,
koi ajnabi hai nahi yeh dost mere,
yeh ham main se kisi ek ki majboori hai..

apka article pada bahut accha likha hai..... keep it up....

मोहन वशिष्‍ठ said...

जीना इसी का नाम है

सुशील छौक्कर said...

क्या कहूँ?

Post a Comment